बेंगलुरू में 22 लाख का पैकेज या 12 लाख के पैकेज पर वर्क फ्रॉम होम? महिला ने पूछा सवाल तो सोशल मीडिया पर छिड़ गई बहस

आजकल नौकरी की दुनिया में पैसा और सुकून दोनों की जंग चल रही है . कुछ लोग ज्यादा सैलरी देखकर तुरंत ऑफर पकड़ लेते हैं . तो कुछ लोग कम पैसों में भी वर्क फ्रॉम होम का मजा लेना पसंद करते हैं . सोशल मीडिया पर इन दिनों एक ऐसी महिला तकनीकी पेशेवर की कहानी खूब चर्चा में है जिसने हाल ही में अपनी नौकरी खोई थी और अब उसके सामने दो बिल्कुल अलग ऑफर हैं . एक तरफ 22.5 लाख रुपये सालाना की मोटी सैलरी है लेकिन उसमें रोज ऑफिस जाना और लंबा ट्रैफिक झेलना पड़ेगा . दूसरी तरफ 12 लाख रुपये सालाना की जॉब है जो पूरी तरह वर्क फ्रॉम होम है . अब असली सवाल यही है कि आखिर कौन सा रास्ता चुना जाए .
जुलाई में ही महिला ने धोया अपनी पुरानी नौकरी से हाथ
यह महिला जुलाई में अपनी पुरानी नौकरी से हाथ धो बैठी थी . उस वक्त उसका पैकेज करीब 19 लाख रुपये सालाना था . यानी अब जो रिमोट जॉब ऑफर है वह उसके पुराने पैकेज से भी कम है . जबकि बेंगलुरु की स्टार्टअप वाली जॉब में पैसा ज्यादा है लेकिन लाइफस्टाइल पर दबाव भी उतना ही भारी . बेंगलुरु का नाम आते ही ट्रैफिक जाम और ऊंचे किराए याद आ जाते हैं . ऑफिस तक रोजाना पहुंचने में घंटों लग जाते हैं . ऊपर से फिक्स्ड टाइमिंग और तनाव भी अलग से .
यूजर्स ने दी अलग अलग राय
रेडिट पर इस महिला ने अपनी दुविधा शेयर की तो लोगों ने तरह-तरह की राय दी . कुछ ने कहा कि ज्यादा सैलरी से नए मौके मिलेंगे . बेंगलुरु जैसे बड़े टेक सिटी में करियर ग्रोथ, प्रमोशन और नेटवर्किंग के चांस ज्यादा रहते हैं . वहां काम करने से उसका रिज्यूमे और मजबूत होगा और लंबे समय में फायदे ही फायदे होंगे . वहीं दूसरी तरफ कई लोगों ने चेतावनी भी दी कि बेंगलुरु की महंगी जिंदगी उसकी जेब पर भारी पड़ सकती है . घर का किराया, खाना, आने-जाने का खर्च और बाकी खर्चे 22.5 लाख वाली सैलरी को भी धीरे-धीरे खा जाएंगे .
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वर्क फ्रॉम होम को मिला खुलकर सपोर्ट
वर्क फ्रॉम होम का सपोर्ट करने वालों ने कहा कि भले ही सैलरी कम है लेकिन उसका फायदा जिंदगी के सुकून में है . न ट्रैफिक का टेंशन, न रोज ऑफिस दौड़ने की टेंशन और न ही हर वक्त की हड़बड़ी . घर से काम करने का मतलब है परिवार के साथ वक्त, मानसिक शांति और हेल्दी लाइफस्टाइल . छंटनी झेल चुकी इस महिला के लिए यह लचीलापन किसी तोहफे से कम नहीं .
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